Tuesday, May 26, 2020

यह महाभारत की कहानी है। यह कायरता, बेईमानी और छलकपट की कहानी है।

मैं उन लोगों से क्षमा याचना चाहता हूँ। जो लोग महाभारत की कहानी को एक धार्मिक कहानी मानते हैं और वें यह समझते हैं कि इस कहानी में वर्णित सारा विवरण शत-प्रतिशत सही है। इसलिए इसकी आलोचना का कोई सवाल नहीं उठता क्योंकि इस महान युद्ध में भगवान कृष्ण ने अर्जुन का सारथी बनकर हिस्सा लिया। इसलिए इस तथ्य से यह बहुत स्पष्ट है कि भगवान कृष्ण ने इस युद्ध में पाण्डवों और उनकी सेना का पूरी तरह समर्थन किया। मैं यह लेख दूरदर्शन (भारती) पर लॉकडाउन के दौरान प्रसारित और अभी हाल में इसके ख़त्म होने के बाद लिख रहा हूँ। मैंने महाभारत सीरियल पहले भी देखा था जब मैं बच्चा था। तब मैंने महाभारत सीरियल देखने का आनंद लिया था और इस नतीजे पर पहुँचा था कि पाण्डवों द्वारा अपने राज्य को प्राप्त करने के लिए कौरवों से जो युद्ध किया था वो सही था। मेरा यह भी विचार था कि पाण्डवों ने इस युद्ध को लड़ने के लिए जो तरीका अपनाया था वो भी सही था। 30 साल बाद जब महाभारत सीरियल पुनः प्रसारित किया जाने लगा तब मैंने इसे देखने में फिर दिलचस्पी ली। इस बार मैंने महाभारत सीरियल को एक परिपक्व सोच वाले दर्शक के रूप में देखा और मैंने महाभारत की कहानी में बहुत सी गलत बातें पाईं। क्योंकि मैं एक पत्रकार हूँ इसलिए मेरी अंतरात्मा मुझे विवश करती है कि मैं महाभारत में पाई जाने वाली गलत बातों पर प्रकाश डालूँ। मैं महाभारत में पाई जाने वाली अनैतिक और निंदनीय बातों पर किसी बुरे इरादे से प्रकाश नहीं डाल रहा हूँ। मैं इनको एक कथाकार के तौर पर पेश कर रहा हूँ जो जो देखता है, पढ़ता है और सुनता है। यद्यपि मैं यह जानता हूँ कि मेरे द्वारा महाभारत में पाई जाने वाली अनैतिक और निंदनीय बातों के प्रस्तुत करने पर लोग क्रोध से भड़क उठेंगे। लेकिन मैं महाभारत में पाई जाने वाली गलत बातों को प्रस्तुत करने में विवश हूँ, क्योंकि पत्रकार होने के नाते मेरी यह ज़िम्मेदारी है कि लोगों को बताऊँ कि क्या सच है और क्या गलत है? 

मेरा यह विचार है कि महाभारत युद्ध को रोका जा सकता था और 18 दिनों तक लड़े गये इस युद्ध में दोनों पक्षों के मारे गए लाखों सैनिकों का जीवन बचाया जा सकता था। अगर दोनों पक्षों द्वारा इसे रोकने के लिए ईमानदारी से प्रयास किया गया होता तो इसे रोका जा सकता था। हम सभी जानते हैं कि महाभारत युद्ध की शुरुआत पाण्डवों के अज्ञातवास की अवधि के समाप्त होने से पहले उनकी पहचान हो जाने के कारण हुई थी। वास्तव में दुर्योधन चाहता था कि पाण्डवों को उनके अज्ञातवास समाप्त होने से पहले खोज लिया जाए। इसलिए उसने अपने गुप्तचरों के मुखिया को आदेश दिया कि पाण्डवों को खोज निकाला जाए। दुर्योधन के गुप्तचर अंततः पाण्डवों को उनके अज्ञातवास के दौरान खोज निकालने में सफल रहे। सभी पाण्डवों ने राजा मत्स्य के महल में उनके सेवकों के रूप में शरण ले रखी थी। दुर्योधन ने पाण्डवों को राजा मत्स्य के महल से बाहर निकालने की साजिश रची। इस साजिश के तहत दुर्योधन ने मत्स्य राज पर हमला करने के लिए भीष्म पितामह को तैयार कर लिया ताकि यह युद्ध कौरव सेना उनकी अगुवाई में लड़े। इस प्रकार मत्स्य राज्य पर हमला बोल दिया गया। तब अर्जुन मत्स्य राज्य की ओर से मुकाबला करने के लिए युद्ध के मैदान में आए और जब अर्जुन ने युद्ध शुरू करने का संकेत अपना शंख बजाकर दिया तो दुर्योधन ने शंख की आवाज़ सुनकर अर्जुन को तुरंत पहचान लिया और भीष्म पितामह से कहा कि अब हम हस्तिनापुर लौट चलें क्योंकि अर्जुन को अज्ञातवास की अवधि ख़त्म होने से पहले पहचान लिया गया है लेकिन भीष्म पितामह ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। 

बहरहाल युद्ध लड़ा गया और अर्जुन ने अकेले ही कौरव सेना के योद्धाओं को पराजित कर दिया। अर्जुन ने ऐसा करने के लिए ऐसे बाण का इस्तेमाल किया जिससे बेहोश कर देने वाला धुआँ उत्पन्न हुआ, जिसके कारण कौरव सेना और उनके योद्धा भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, अश्वथामा सभी बेहोश हो गए और इस प्रकार विराट युद्ध का समापन हुआ। दुर्योधन पाण्डवों को मत्स्य राज्य के महल से निकालने की अपनी योजना में सफ़ल हो गया। इसलिए उसने विराट युद्ध के दिन अज्ञातवास के भंग होने का मुद्दा उठाया क्योंकि उस दिन पाण्डवों की अज्ञातवास की अवधि समाप्त होने और ना होने के विवाद के समाधान के लिए ईमानदारी से अज्ञातवास की अवधि समाप्त नहीं हुई थी। ऐसी स्थिति में दुर्योधन का कहना था कि पाण्डव दोबारा 12 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास को पूरा करें। दूसरी तरफ पाण्डवों का यह दावा था कि विराट युद्ध के 1 दिन पहले उनके अज्ञातवास की अवधि पूरी हो गई थी। इसलिए वे अपने राज्य इंद्रप्रस्थ को पाने के हक़दार थे। इस तरह अज्ञातवास की अवधि विवाद में बदल गई क्योंकि हस्तिनापुर के राजा और दुर्योधन के पिता धृतराष्ट्र ने भी इस मुद्दे पर यह राय व्यक्त की कि अज्ञातवास की अवधि का मुद्दा विवादित हो गया है क्योंकि विशेषज्ञों की राय विभिन्न है। अज्ञातवास संबंधित विवाद का हल इसलिए नहीं निकल पाया क्योंकि दोनों पक्ष अपने-अपने विचार पर अड़े हुए थे। यह वह अवसर था जब महाभारत के युद्ध को रोकने के लिये प्रयास किया जाना चाहिए था। मेरे विचार से अगर इस विवाद का समाधान हो जाता तो महाभारत का युद्ध रोका जा सकता था। यह आश्चर्य की बात है कि भगवान कृष्ण ने भी इस विवाद को हल करने में बिल्कुल दिलचस्पी नहीं ली। इसका मतलब है कि भगवान कृष्ण भी यह मान रहे थे कि अज्ञातवास की अवधि विराट युद्ध से पहले समाप्त हो गई थी। जहाँ तक अज्ञातवास से संबंधित विवाद का संबंध है इस सिलसिले में दुर्योधन का यह कहना सही लगता है कि विराट युद्ध के दिन अज्ञातवास की अवधि समाप्त नहीं हुई थी। इसका कारण यह है कि दुर्योधन अज्ञातवास की अवधि के समाप्त होने से पहले पाण्डवों को पहचान लिए जाने वाले प्रयास बिल्कुल शुरू से ही कर रहा था ताकि पाण्डवों को अज्ञातवास की अवधि के पूरे होने से पहले पहचान लिया जाए और उन्हें दोबारा वनवास और अज्ञातवास पर जाने के लिए विवश किया जा सके। ऐसी स्थिति में अज्ञातवास के ख़त्म होने के दिन के बारे में उसकी जानकारी सही थी। 

सवाल उठता है कि महाभारत के युद्ध का बीज कहाँ बोया गया था? हम सब जानते हैं कि हस्तिनापुर राज्य को दो हिस्सों में बाँटा गया ताकि एक हिस्सा पाण्डवों को हस्तांतरित कर दिया जाए। पाण्डवों ने अपने राज्य का नाम इंद्रप्रस्थ रखा। उन्होंने इंद्रप्रस्थ में अपने लिए एक अति सुंदर महल बनवाया और दुर्योधन और उसके दल को महल के अवलोकन के लिए आमंत्रित किया। जब दुर्योधन और उसका दल महल देखने के लिए पहुँचे तो एक कमरे में जब दुर्योधन उसके फर्श को यह समझकर दाखिल हुआ कि कमरे का फर्श ठोस सामग्री से बना हुआ है तो वह पानी में गिर पड़ा क्योंकि कमरे का फर्श देखने में ठोस लगता था लेकिन वास्तव में एक तालाब था। इस अवसर पर द्रौपदी ने दुर्योधन पर यह तंज किया कि अँधे का पुत्र अँधा ही होता है। यह सुनकर दुर्योधन तिलमिला उठा। सवाल उठता है कि क्या द्रौपदी द्वारा दुर्योधन पर तंज किया जाना ही महाभारत युद्ध का असल कारण था। द्रौपदी से अपने अपमान का बदला लेने के लिए दुर्योधन ने पाण्डवों के साथ 'चौसर' खेलने की योजना बनाई। 'चौसर' के इस खेल में दुर्योधन ने पाण्डवों को हरा दिया, जिसमें उसने पाण्डवों की ना सिर्फ सभी संपत्ति जीत ली बल्कि उनकी पत्नी द्रौपदी को भी जीत लिया। तब दुर्योधन ने अपने छोटे भाई को निर्देश दिया कि वह द्रौपदी को घसीट कर राज्यसभा में ले आए और उसके बाद उसका वस्त्र-हरण किया जाए। द्रौपदी के साथ सभी अनैतिक व्यवहार दुर्योधन द्वारा किए गए। दुर्योधन द्वारा द्रौपदी के साथ अनैतिक व्यवहार इस कथन के लिए किया गया कि अँधे का बेटा अँधा ही होता है। यहाँ पाठकों को 'चौसर' के खेल में पाण्डवों द्वारा अपनी पत्नी समेत सभी संपत्ति को हारने से संबंधित विवरण को याद दिलाना आवश्यक होगा। उपरोक्त सभी घटनाएँ महाभारत युद्ध के शुरू होने का कारण बनी। यद्यपि बाद में पाण्डवों द्वारा महाभारत युद्ध को रोकने की कोशिश की गई, लेकिन यह कोशिश इस विचार के तहत की गई कि उन्होंने अज्ञातवास की अवधि को सफलतापूर्वक पूरा कर लिया है। इसलिए उनका यह अधिकार है कि हस्तिनापुर के राजा धृतराष्ट्र द्वारा उनका राज्य इंद्रप्रस्थ उन्हें लौटा दिया जाए। मेरे विचार से पाण्डवों द्वारा अपने राज्य इंद्रप्रस्थ वापसी की माँग गलत थी क्योंकि अज्ञातवास की अवधि के ख़त्म होने या ना होने से संबंधित विवाद बरक़रार था। इन परिस्थितियों में पाण्डवों द्वारा अपने राज्य इंद्रप्रस्थ की वापसी की मांग को कोई भी निष्पक्ष व्यक्ति उचित नहीं ठहराएगा। इसलिए उनका (पाण्डवों का) युद्ध को रोकने का प्रयास असफल हुआ क्योंकि दुर्योधन ने साफ़ तौर पर पाण्डवों को उनका राज्य वापस देने से इनकार कर दिया था। जब पाण्डवों ने अपना दूत हस्तिनापुर भेजा जिसमें पाण्डवों को उनका राज्य इंद्रप्रस्थ वापस किए जाने का प्रस्ताव था। तब भगवान कृष्ण पाण्डवों की रजा़मंदी से स्वयं हस्तिनापुर शाँति प्रस्ताव लेकर गए, यह जानते हुए भी कि धृतराष्ट्र और दुर्योधन उनके शाँति प्रस्ताव को नहीं मानेंगे। नतीजा वही निकला जिसका भगवान कृष्ण को अंदाजा़ था। इस अवसर पर दुर्योधन ने निर्णायक तौर पर यह कह दिया कि पाण्डवों को वह सूईं की नोंक के बराबर भी ज़मीन नहीं देगा। इस संबंध में दुर्योधन ने अपना पूर्वत बयान दोहराया कि पाण्डवों को 12 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास पुनः पूरा करना होगा क्योंकि वें लोग अज्ञातवास की अवधि पूरी होने से पहले ही पहचान लिए गए। सवाल उठता है कि क्या भगवान कृष्ण का हस्तिनापुर के राज्यसभा में जाकर पाण्डवों की इस मांग को कि उनका राज्य इंद्रप्रस्थ उन्हें वापस कर दिया जाए? उपरोक्त परिस्थितियों में मैं पाठकों से यह अपील करता हूँ कि वें इस प्रश्न का उत्तर बताएं। 

बहरहाल महाभारत का युद्ध धर्म और अधर्म के बीच युद्ध के नाम से शुरू हुआ। आज यह आश्चर्यजनक लगता है कि दो परिवारों के बीच का भूमि विवाद कैसे धर्म और अधर्म के बीच का युद्ध बन गया। क्या महाभारत का युद्ध धर्म और अधर्म के बीच का युद्ध था क्योंकि हस्तिनापुर की राज्यसभा में द्रौपदी के वस्त्र-हरण का प्रयास किया गया था और दुर्योधन द्वारा पाण्डवों की इंद्रप्रस्थ लौटाए जाने की मांग को ठुकरा दिया गया था। वास्तव में हस्तिनापुर की राज्यसभा में द्रौपदी के वस्त्र-हरण की कोशिश एक बहुत ही गंभीर, आपराधिक, अनैतिक और अधर्म कृत्य था। द्रौपदी के वस्त्र-हरण का प्रयास औरत के सम्मान, गरिमा, आदर और सतीत्व पर हमला था और यह अक्षम्य कृत्य था। वास्तव में वों पाण्डव थे विशेषकर धर्मराज युधिष्ठिर जिन्होंने द्रौपदी को 'चौसर' के खेल में दाँव पर लगाकर उसके आदर, सम्मान, गरिमा और सतीत्व को ठेस पहुँचाने के लिए जिम्मेदार थे। इसलिए जो कोई दुर्योधन और उनके दल को औरत को अपमानित करने के लिए जि़म्मेदार ठहराता है उसे सबसे पहले युधिष्ठिर को सजा़ देने का प्रबंध करना चाहिए और फि़र दुर्योधन और उसके दल को। 

महाभारत का युद्ध धर्म और अधर्म के बीच के युद्ध के तौर पर जाना जाता है। इस बात को युद्ध के दौरान भगवान कृष्ण द्वारा बार-बार कहा गया है और इसी संदर्भ में भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को युद्ध शुरु करने की बात समझाई क्योंकि अर्जुन ने कौरव सेना पर जिसमें द्रोणाचार्य, भीष्म पितामह, अश्वथामा, दुर्योधन आदि शामिल थे, हमला करने से इंकार कर दिया था। उस वक्त भगवान कृष्ण ने यही कहा था कि वह (अर्जुन) एक धर्म युद्ध अधर्मी तत्वों के विरुद्ध लड़ रहा है और वह जिन अधर्मी तत्वों के खिलाफ़ युद्ध लड़ रहा है वें उसके सगे-संबंधी नहीं है बल्कि वें उसके दुश्मन हैं। इसलिए तुम्हें उनके खिलाफ़ युद्ध लड़ना ही है। इस युद्ध में शुरू से अंत तक हम देखते हैं कि पाण्डवों द्वारा कौरव सेना के योद्धाओं को गलत तरीके से मारा गया जिन्हें भीष्म पितामह द्वारा बताए गए युद्ध के नियमों का पालन करते हुए नहीं मार सकते थे। दूसरे शब्दों में कौरव सेना के योद्धाओं को पाण्डवों द्वारा भगवान कृष्ण के इशारे पर धोखा, बेईमानी और छल कपट के तरीके को अपनाकर मारा गया। अगर ऐसा ना किया गया होता तो पाण्डव महाभारत युद्ध को नहीं जीत सकते थे। युद्ध आरंभ होने पर भीष्म पितामह को कौरव सेना का प्रधान सेनापति बनाया गया। जबकि दुर्योधन यह जानता था कि भीष्म पितामह की निष्ठा पाण्डवों के साथ है। यहाँ इस बात को याद रखना चाहिए कि भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान मिला हुआ था। इसका अर्थ यह है कि किसी भी दुश्मन द्वारा उनको मारा नहीं जा सकता था। महाभारत युद्ध के कई दिन चलने के बाद भी पाण्डव जीत की ओर बढ़ने में असमर्थ थे। तब युधिष्ठिर को रात के समय भीष्म पितामह के पास भेजा गया जोकि युद्ध के नियमों के अनुसार था और भीष्म पितामह से अनुरोध किया कि वह अपना 'विजयी भवः' का आशीर्वाद वापस ले लें, जिसे उन्होंने उन्हें दिया था क्योंकि वें इस युद्ध को उस वक्त तक नहीं जीत सकते हैं। जब तक वह कौरव सेना के प्रधान सेनापति के तौर पर युद्ध लड़ेंगे। तब भीष्म पितामह ने युद्ध के मैदान से स्वयं को हटाने का उन्हें अपना रहस्य बताया। उन्होंने युधिष्ठिर को बताया कि युद्ध के दौरान एक औरत को उनके सामने ला दिया जाए क्योंकि वह किसी औरत के ख़िलाफ अपने हथियारों का प्रयोग नहीं कर सकते और यह वह अवसर होगा जब अर्जुन मुझ पर बाण का प्रयोग कर सकता है। अगली सुबह जब युद्ध शुरू हुआ तब अर्जुन युद्ध के मैदान में अपने रथ पर शिखंडी के साथ आया। युद्ध शुरू हुआ तब भीष्म पितामह और अर्जुन एक-दूसरे पर बाणों से प्रहार करने लगे तभी शिखंडी (जो एक हिजडा़ था) को अर्जुन के आगे और भीष्म पितामह के सामने कर दिया गया। अर्जुन के बजाय शिखंडी को अपने सामने देखकर भीष्म पितामह ने अपना धनुष-बाण रथ पर एक किनारे रख दिया क्योंकि वह अपना शस्त्र किसी औरत पर प्रयोग नहीं कर सकते थे। एक निहत्थे पर हथियार का प्रयोग युद्ध के नियमों के खिलाफ़ था इसलिए अर्जुन भीष्म पितामह पर बाण चलाने में हिचकिचा रहा था। तब भगवान कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा कि भीष्म पितामह तुम्हारे सगे-संबंधी नहीं है बल्कि तुम्हारे शत्रु है। भगवान कृष्ण द्वारा उकसाए जाने पर अर्जुन ने भीष्म पितामह पर बाणों की वर्षा कर दी जिसके नतीजे में यें बाण भीष्म पितामह के लिए शय्या बन गए। अब भीष्म पितामह युद्ध में भाग नहीं ले सकते थे, लेकिन वह अपनी इच्छा के मुताबिक जीवित रह सकते थे। इस प्रकार भीष्म पितामह को युद्ध के मैदान से हटा दिया गया। भीष्म पितामह को पाण्डवों द्वारा युद्ध के मैदान से हटाए जाने के बाद उन्हें द्रोणाचार्य का सामना करना पड़ा जो कौरव सेना के नए प्रधान सेनापति बनाए गए थे। वह भी पाण्डवों द्वारा युद्ध जीतने के लिए बहुत बड़ी रुकावट बने। तब भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वथामा नामक हाथी को मारने का परामर्श पाण्डवों को दिया और अश्वथामा हाथी के मारे जाने की अफ़वाह युद्ध में फैला दी। यह अफ़वाह सुनकर कौरव सेना के प्रधान सेनापति द्रोणाचार्य को बड़ा सदमा लगा, क्योंकि उन्होंने समझा कि उनका पुत्र अश्वथामा युद्ध में मारा गया और वह युधिष्ठिर के पास अपने पुत्र अश्वथामा के मारे जाने की पुष्टि के लिए आए। युधिष्ठिर पहले अश्वथामा के मारे जाने की पुष्टि करने में हिचकिचा रहे थे। तब भगवान कृष्ण ने युधिष्ठिर का सच बताने की ओर रुझान देखकर उन्हें सच ना बताने का परामर्श दिया और कहा कि वह द्रोणाचार्य द्वारा अपने पुत्र के मारे जाने के प्रश्न की पुष्टि कर दे। वास्तव में द्रोणाचार्य युधिष्ठिर के पास अपने पुत्र के मारे जाने की सच्चाई जानने के लिए युधिष्ठिर के पास इसलिए आए थे क्योंकि युधिष्ठिर धर्मराज के तौर पर जाने जाते थे और द्रोणाचार्य को यह विश्वास था कि युधिष्ठिर सच बताएंगे। अपने पुत्र के मारे जाने की अफवाह को सच बताए जाने पर द्रोणाचार्य ने अपना धनुष-बाण अपने रथ पर रखा और रथ से उतरकर धरती पर आ गए और ध्यान की मुद्रा में बैठ गए। तब अर्जुन ने उन पर हमला करना बंद कर दिया और जब द्रौणाचार्य निहत्थे हो गये तो भगवान कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया कि वह एक धर्म युद्ध लड़ रहा है जिसमें युद्ध के नियमों का पालन करना महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि दुश्मन को मारना महत्वपूर्ण है। भगवान कृष्ण के इस उपदेश को सुनकर अर्जुन अपने हाथ में तलवार लेकर अपने रथ से नीचे उतरा और द्रोणाचार्य का सर धड़ से अलग कर दिया। सवाल उठता है कि क्या अर्जुन का यह कृत्य कायरता और धोखेबाजी का कृत्य नहीं था? जब द्रोणाचार्य युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए तो कर्ण को कौरव सेना का प्रधान सेनापति बनाया गया और उसने उस दिन द्रोणाचार्य द्वारा छोड़े गए युद्ध को शुरू किया। जब शाम को युद्ध समाप्ति की ओर बढ़ रहा था तब कर्ण को अर्जुन को मारने का मौका मिला लेकिन कर्ण ने सूर्यास्त के समय दुश्मन पर हमला न करने के युद्ध के नियम का पालन किया और इस तरह अर्जुन को मारे बगैर छोड़ दिया। दूसरे दिन कर्ण की अगुवाई में कौरव सेना ने पाण्डव सेना पर हल्ला बोल दिया और फिर पाण्डवों और कौरव की सेनाओं के बीच भीषण युद्ध शुरू हो गया। कर्ण और अर्जुन भी एक-दूसरे पर अपने बाणों से हमला करने लगे। समय बीतता रहा और कर्ण और अर्जुन एक-दूसरे पर हमला करने में लगे रहे। इसी बीच कर्ण के रथ का एक पहिया धरती में धँस गया और कर्ण अर्जुन से युद्ध करने में असमर्थ हो गया। तब उसने अर्जुन को संबोधित करते हुए कहा कि उसके रथ का एक पहिया धरती में धँस गया है और वह रथ से उतरकर पहिये को धरती से निकालने जा रहा है और अर्जुन ने कर्ण पर हमला करना बंद कर दिया। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को उकसाया कि यह वही कर्ण है जिसनेे द्रौपदी को वैश्या कहा था। यहाँ यह बात स्मरनीय है कि महाभारत युद्ध से पहले जब कर्ण और भगवान कृष्ण एक-दूसरे से मिले थे और भगवान कृष्ण ने कर्ण को पाण्डवों का साथ देने का प्रस्ताव उनका भाई होने के नाते रखा था। कर्ण ने कृष्ण के इस प्रस्ताव को यह कहकर ठुकरा दिया कि पाण्डवों के शिविर में द्रौपदी भी मौजूद है जिसका सामना मैं नहीं कर सकता क्योंकि मैंने उसे हस्तिनापुर की राज्यसभा में अपमानित किया था जिसके लिए मैं अपराध बोध से ग्रस्त हूँ और मैं ऐसा करने के लिए मन से दुखी हूँ। अर्जुन क्रोधित हो उठा और उसने निहत्थे कर्ण को मार दिया।

इसी तरह सिंधु नरेश जयद्रथ को भी अर्जुन ने युद्ध के नियमों का उल्लंघन कर मार डाला। युद्ध के मैदान में अर्जुन की अनुपस्थिति में जब अभिमन्यु मारा गया तो अर्जुन को बताया गया कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि जयद्रथ ने पाण्डवों की सारी सेना को रोक लिया और इस तरह शत्रुओं के बीच में अभिमन्यु अकेला पड़ गया। तब शत्रुओं ने अभिमन्यु को घेरकर मार डाला। अभिमन्यु का यह वध भी युद्ध के नियमों के ख़िलाफ था क्योंकि कौरव सेना के कई योद्धाओं ने मिलकर अभिमन्यु को मारा था। यह सुनकर अर्जुन ने प्रण किया कि जयद्रथ कल का सूर्यास्त नहीं देखेगा और अगर ऐसा नहीं हुआ तो वो स्वयं अग्नि समाधि ले लेगा। अगली सुबह जब युद्ध शुरू हुआ तो अर्जुन ने जयद्रथ को मारने का भरपूर प्रयास किया, लेकिन असफल रहा और शाम हो गई और सूर्यास्त होने लगा। इसी बीच भगवान कृष्ण ने चमत्कार कर सूर्यास्त करा दिया। यह देखकर कौरव सेना के योद्धा बहुत प्रसन्न हुए और अट्ठाहस करने लगे। उन्होंने अर्जुन से कहा कि अब वह अग्नि समाधि ले ले। अचानक भगवान कृष्ण के चमत्कार से सूर्य फिर उदय हुआ। उस वक्त जयद्रथ अर्जुन के बिल्कुल सामने था और तब अर्जुन ने जयद्रथ को मार गिराया। अंत में दुर्योधन ने सर्वश्रेष्ठ गदाधारी भीमसेन को गदायुद्ध के लिए ललकारा। दोनों गदायुद्ध करने लगे जो काफ़ी लंबा चला। जब भीमसेन दुर्योधन को मारने में असफ़ल रहा तब भगवान कृष्ण ने भीमसेन को इशारा कर दुर्योधन की जंघा पर हमला किया जो दुर्योधन की मौत का कारण बना।

इस प्रकार हम देखते हैं कि महाभारत का युद्ध पाण्डवों ने धोखा, छलकपट और बेईमानी का रास्ता अपनाकर कौरव के योद्धाओं को मारा और युद्ध जीता और इसी के साथ उन्होंने अपनी कायरता का प्रदर्शन किया। इस प्रकार पाण्डवों और कौरवों के बीच भूमि विवाद को धर्म और अधर्म के बीच का युद्ध बना दिया गया।

महाभारत सीरियल के गैर हिंदू दर्शक कौरव सेना के योद्धाओं को पाण्डवों द्वारा भगवान कृष्ण के उकसाने पर अनुचित, अनैतिक और अधर्म तरीका अपनाकर मारने की कार्रवाई की आलोचना किए बगैर नहीं रहेगा। ऐसी स्थिति में महाभारत युद्ध में भगवान कृष्ण की भूमिका बहुत अधिक आपत्तिजनक हो जाती है।


- रोहित शर्मा विश्वकर्मा

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