यह शीर्षक इस कहावत "रोम जल रहा था और नीरो चैन की बांसुरी बजा रहा था" से लिया गया है। यह कहावत ऐसे किसी स्थान और देश की और संकेत करता है जहां कानून और व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं रह गई है और चारों ओर अराजकता फैल गई है और लोग एक दूसरे की हत्या कर रहे हैं और सभी प्रकार के अपराध बिना किसी रोकटोक के अंजाम दिए जा रहे हैं। उत्तर पूर्वी दिल्ली के एक हिस्से में कुछ दिनों पूर्व यही स्थिति देश और विश्व के लोगों ने जब देखा कि दो धार्मिक गुट एक-दूसरे पर हमलावर हो गए और एक-दूसरे की बिना रोकटोक निर्मम हत्या करने लगे जिसके नतीजे में अब तक 49 लोग मारे गए हैं। देश की राजधानी दिल्ली में अराजकता की यह स्थिति देखी गई जबकि हम कई क्षेत्रों में 'विश्व गुरु' होने की शेखी मारते हैं। यह हमारे लिए शर्म से डूब मरने की बात है कि हमने उत्तरपूर्वी दिल्ली के एक छोटे से हिस्से में इस स्थिति को बदतर होने की 3 दिन तक छूट दी। अराजकता की यह स्थिति हमें 2002 में गुजरात में हुए नरसंहार की याद दिलाती है जिसमें उन्मादी भीड़ द्वारा बिना रोकटोक के 2500 से 3000 मुसलमान मारे गए थे क्योंकि पूरी पुलिस मशीनरी हाथ पर हाथ धरकर खामोश तमाशाई बनी रही। उस समय मुसलमानों के घर पर निशान लगाया गया था ताकि उन्हें हमले के समय चिन्हित किया जा सके। उस समय मीडिया में प्रकाशित रिर्पोटों के अनुसार पुलिस उस समय भी दंगा ग्रस्त क्षेत्रों में नहीं गई जब उन्हें फोन पर दंगा पीड़ितों द्वारा बचाने के लिए सूचना दी गई। इसकी एक मिसाल कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी की है जिनके यहां से पुलिस को उनके घर पर दंगाइयों द्वारा हमला किए जाने के समय पुलिस को बार-बार सूचित किया गया लेकिन पुलिस वहां नहीं पहुंची और जाफरी और उनका परिवार मारा गया। यहां यह जिक्र असंगत नहीं होगा कि मोदी उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे। स्वतंत्र भारत में मुसलमानों का इतने बड़े स्तर पर कत्लेआम की पहली घटना थी जिसकी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काफी आलोचना हुई थी और बहुत से देशों ने मोदी को उस समय वीज़ा देने से इंकार कर दिया था जब उन्होंने वीज़ा के लिए आवेदन किया था।
दिल्ली में दंगा एक विशेष गुट को एक दूसरे गुट को मारने के इरादे से करवाया गया। अगर ऐसी योजना नहीं बनाई गई होती तो दिल्ली में दंगा ग्रस्त क्षेत्रों में जाने से पुलिस को नहीं रोका गया होता। सवाल उठता है कि दिल्ली पुलिस ने दंगाइयों के खिलाफ 3 दिन तक कार्रवाई क्यों नहीं की और दंगा रोकने के लिए तुरंत कदम क्यों नहीं उठाया? अगर दिल्ली पुलिस ने कार्रवाई नहीं की तो केंद्र सरकार विशेषकर गृह मंत्रालय ने दंगा रोकने के लिए क्यों नहीं कुछ किया। यहां यह बात स्मरणीय है कि दिल्ली पुलिस दिल्ली सरकार के अधीन नहीं है। यह केंद्र सरकार के अधीन है और केंद्र सरकार इस मुद्दे पर मूकदर्शक बनी रही और इस प्रकार हत्या आगजनी और लूटपाट की घटनाएं बेरोकटोक जारी रही। ऐसा लगता है कि इस बर्बरता पूर्व और असभ्य रोकने के लिए कोई सरकारी मशीनरी मौजूद ही नहीं थी। जहां तक दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का संबंध है उनके अधीन पुलिस नहीं है इसलिए वो दंगा रोकने के संबंध में असहाय थे। यह केंद्र सरकार की विशेषकर दो सर्वोच्च पदाधिकारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की जिम्मेदारी थी कि वें दिल्ली में शांति बनाए रखने और स्थिति को बदतर होने से रोकने का प्रयास करते।
उक्त परिस्थितियों पर विचार करने पर कोई भी इस नतीजे पर पहुंच सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह दिल्ली में अमन और शांति बरकरार रखने के इच्छुक नहीं थे और यही चाहते थे कि एक विशेष गुट से संबंधित लोग मारे जाएं। दिल्ली में दंगा रोकने के उनके इरादे को जाहिर नहीं किए जाने की उनकी सोच से लोगों को यह कहावत याद आती है कि "रोम जल रहा था और नीरो चैन की बांसुरी बजा रहा था।"
-रोहित शर्मा विश्वकर्मा
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