आखिरकार अयोध्या विवाद को सर्वोच्च न्यायालय ने 9 नवंबर 2019 को दिए गए अपने एक फैसले से हल कर दिया। यह फैसला सर्वोच्च न्यायालय के 5 जजों की पीठ द्वारा किया गया जिसकी अगुवाई मुख्य न्यायाधीश मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने किया। इस फैसले की प्रमुख बात यह है कि ये सर्वसम्मति से किया गया। इस पीठ के किसी भी माननीय न्यायाधीश ने इस फैसले के किसी भी बिंदु पर अपना मतभेद नहीं जताया जो आश्चर्यजनक बात है। यद्यपि इस फैसले का बड़े पैमाने पर स्वागत हुआ है लेकिन कुछ लोगों द्वारा इस फैसले पर प्रश्न भी खड़े किए गए हैं। उदाहरण के तौर पर सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश माननीय अशोक कुमार गांगुली अपनी असंतुष्टि व्यक्त करते हुए कहते हैं कि अदालत इतिहास नहीं बना सकती। किसी ने भी बाबरी मस्जिद के स्थान पर किसी मंदिर को गिराए जाते हुए नहीं देखा जबकि हम सभी ने बाबरी मस्जिद वो गिराए जाने की घटना को देखा है। अदालत का यह कर्तव्य है कि वो विवादित जगह पर मौजूद ढांचे (अवशेष) को संरक्षण दे। कोई नहीं जानता है कि विवादित स्थल पर पहले क्या था? कोई नहीं जानता कि विवादित स्थल पर मंदिर था जिसे ध्वस्त कर बाबरी मस्जिद बनाई गई। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस अशोक कुमार गांगुली वा कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अयोध्या विवाद पर दिया गया फैसला इतिहास बनाने जैसा है जो न्यायालय का कर्तव्य नहीं है। इस फैसले का मतलब है कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस कर उसकी जगह मंदिर बनाया जाए। जस्टिस गांगुली का यह विचार "द टेलीग्राफ" में प्रकाशित हुआ है।
ऑल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल -ए-मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के नेता और हैदराबाद के सांसद बैरिस्टर असदुद्दीन ओवैसी का कहना है कि अयोध्या विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला गलतियों से परे नहीं है, यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय सुप्रीम है। उनका कहना है कि हम इस फैसले से संतुष्ट नहीं है। हमारा सवाल है कि अगर बाबरी मस्जिद अपनी जगह मौजूद होती तो क्या अदालत का फैसला यही होता जो उसने दिया है। वास्तव में सर्वोच्च न्यायालय ने उन लोगों के पक्ष में फैसला दिया है जिन लोगों ने 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद को ढहाया था। इस फैसले का विरोध करना मेरा कानूनी अधिकार है। जहां तक सुन्नी वक्फ़ बोर्ड को बाबरी मस्जिद के बदले में 5 एकड़ भूमि दिए जाने का सवाल है इस संबंध में ओवैसी ने सुन्नी वक्फ़ बोर्ड को सलाह दी है कि वो इस भूमि को लेने से इंकार कर दे, क्योंकि यह भूमि लिए जाने पर उस पर बाबरी मस्जिद का सौदा किए जाने का आरोप लगेगा।
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्यों द्वारा दी गई तीखी प्रक्रिया में कहा गया है कि जब सर्वोच्च न्यायालय बाबरी मस्जिद के अंदर 22/23 दिसंबर 1949 की रात को चोरी से मूर्ति रखे जाने और 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस की घटना को गैर-कानूनी मानती है तो फिर सर्वोच्च न्यायालय ने बाबरी मस्जिद के पक्ष में फैसला क्यों नहीं दिया? इसलिए हम इस फैसले से संतुष्ट नहीं है। जहां तक बाबरी मस्जिद की जगह के बदले 5 एकड ज़मीन दिए जाने का संबंध है हमें इसकी ज़रूरत नहीं है। हम इंसाफ चाहते हैं और ऐसा माहौल चाहते हैं ताकि संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों के अनुसार हम जिंदगी गुजार सकें। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के एक पूर्व सदस्य का कहना है कि इस फैसले से देश के मुस्लिम संप्रदाय का सर्वोच्च न्यायालय से भरोसा डगमगा गया है क्योंकि वें समझते हैं कि उनके साथ गलत हुआ है।
हैदराबाद नालसर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ के कुलपति फैजान मुस्तफ़ा का कहना है कि किसी की आस्था को भूमि से संबंधित साक्ष्य कैसे माना जा सकता है? यह एक बहुत बड़ा सवाल है जिससे भविष्य में बहुत से अनवांछित मुकदमे पैदा होंगे।
"अयोध्या विवाद से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय का फैसला विरोधाभासी है" यह बात दिल्ली के एक जाने-माने वकील महमूद प्राचा का कहना है। प्राचा कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या विवाद का फैसला उन लोगों के पक्ष में किया है जिन्होंने 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किया था और देश के कानून का उल्लंघन किया था। उनका यह भी कहना है कि इस फैसले से देश के मुसलमानों में मथुरा और काशी समेत उन हजारों मस्जिदों को लेकर भयव्याप्त हो गया है जो मंदिरों के पास स्थित है। प्राचा ने अपना भय को व्यक्त करते हुए कहा है कि यद्यपि 15 अगस्त 1947 के बाद अस्तित्व में आए उपर्युक्त मस्जिदों के संरक्षण को लेकर संसद में 1991 में एक कानून बनाया गया है जिसका पालन भविष्य में अयोध्या विवाद जैसा विवाद उठने पर न किया जाए।
- रोहित शर्मा विश्वकर्मा
ऑल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल -ए-मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के नेता और हैदराबाद के सांसद बैरिस्टर असदुद्दीन ओवैसी का कहना है कि अयोध्या विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला गलतियों से परे नहीं है, यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय सुप्रीम है। उनका कहना है कि हम इस फैसले से संतुष्ट नहीं है। हमारा सवाल है कि अगर बाबरी मस्जिद अपनी जगह मौजूद होती तो क्या अदालत का फैसला यही होता जो उसने दिया है। वास्तव में सर्वोच्च न्यायालय ने उन लोगों के पक्ष में फैसला दिया है जिन लोगों ने 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद को ढहाया था। इस फैसले का विरोध करना मेरा कानूनी अधिकार है। जहां तक सुन्नी वक्फ़ बोर्ड को बाबरी मस्जिद के बदले में 5 एकड़ भूमि दिए जाने का सवाल है इस संबंध में ओवैसी ने सुन्नी वक्फ़ बोर्ड को सलाह दी है कि वो इस भूमि को लेने से इंकार कर दे, क्योंकि यह भूमि लिए जाने पर उस पर बाबरी मस्जिद का सौदा किए जाने का आरोप लगेगा।
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्यों द्वारा दी गई तीखी प्रक्रिया में कहा गया है कि जब सर्वोच्च न्यायालय बाबरी मस्जिद के अंदर 22/23 दिसंबर 1949 की रात को चोरी से मूर्ति रखे जाने और 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस की घटना को गैर-कानूनी मानती है तो फिर सर्वोच्च न्यायालय ने बाबरी मस्जिद के पक्ष में फैसला क्यों नहीं दिया? इसलिए हम इस फैसले से संतुष्ट नहीं है। जहां तक बाबरी मस्जिद की जगह के बदले 5 एकड ज़मीन दिए जाने का संबंध है हमें इसकी ज़रूरत नहीं है। हम इंसाफ चाहते हैं और ऐसा माहौल चाहते हैं ताकि संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों के अनुसार हम जिंदगी गुजार सकें। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के एक पूर्व सदस्य का कहना है कि इस फैसले से देश के मुस्लिम संप्रदाय का सर्वोच्च न्यायालय से भरोसा डगमगा गया है क्योंकि वें समझते हैं कि उनके साथ गलत हुआ है।
हैदराबाद नालसर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ के कुलपति फैजान मुस्तफ़ा का कहना है कि किसी की आस्था को भूमि से संबंधित साक्ष्य कैसे माना जा सकता है? यह एक बहुत बड़ा सवाल है जिससे भविष्य में बहुत से अनवांछित मुकदमे पैदा होंगे।
"अयोध्या विवाद से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय का फैसला विरोधाभासी है" यह बात दिल्ली के एक जाने-माने वकील महमूद प्राचा का कहना है। प्राचा कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या विवाद का फैसला उन लोगों के पक्ष में किया है जिन्होंने 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किया था और देश के कानून का उल्लंघन किया था। उनका यह भी कहना है कि इस फैसले से देश के मुसलमानों में मथुरा और काशी समेत उन हजारों मस्जिदों को लेकर भयव्याप्त हो गया है जो मंदिरों के पास स्थित है। प्राचा ने अपना भय को व्यक्त करते हुए कहा है कि यद्यपि 15 अगस्त 1947 के बाद अस्तित्व में आए उपर्युक्त मस्जिदों के संरक्षण को लेकर संसद में 1991 में एक कानून बनाया गया है जिसका पालन भविष्य में अयोध्या विवाद जैसा विवाद उठने पर न किया जाए।
- रोहित शर्मा विश्वकर्मा
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